हिन्दी भाषा : एक सामान्य परिचय (Hindi Language : A General Introduction)

हिन्दी भाषा : एक सामान्य परिचय (Hindi Language : A General Introduction)

 हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति (Etymology of hindi word)

'हिन्दी' शब्द वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि किसी भी प्राचीन भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है। वस्तुतः हमारी भाषा का नाम 'हिन्दी' ईरानियों की देन है। संस्कृत की ध्वनि 'स' को फ़ारसी में 'ह' कहा जाता है; जैसे सप्ताह - हफ्ताह, असुर - अहुर, सिन्धु - हिन्दू आदि। ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध सिन्धु नदी, जो भारत की पश्चिमी सीमा के पास बहती है, को ईरानियों द्वारा हिन्दू या हिन्द कहा जाता था। कालान्तर में सिन्धु नदी के पार की समस्त भूमि को हिन्द कहा जाने लगा और हिन्द की भाषा को हिन्दी कहा जाने लगा।
मध्यकालीन अरबी और फ़ारसी साहित्य में भारत की संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के लिए 'जबान-ए-हिन्दी' शब्द का प्रयोग किया जाता था। आम लोगों की भाषा के लिए भारत में भाषा या भाखा शब्द का प्रयोग किया जाता था। अमीर ख़ुसरो (1253 - 1325 ई.) ने सबसे पहले भाषा या भाखा के स्थान पर 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' शब्द का प्रयोग किया था।अमीर ख़ुसरो के समय में ही 'हिन्दी' और 'हिन्दवी' शब्द मध्यदेश की भाषा के अर्थ में लोकप्रिय हुए। अमीर ख़ुसरो ने ग़ियासुद्दीन तुगलक के बेटे को 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' सिखाने के लिए खालिकबारी नामक फ़ारसी-हिंदी शब्दकोश की रचना की। इस ग्रन्थ में भाषा के अर्थ में 'हिन्दवी' शब्द का प्रयोग 30 बार तथा 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग 5 बार हुआ है। भाषा के लिए 'हिन्दी' शब्द का सबसे प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन के ज़फरनामा (1424 ई.) में मिलता है।

हिंदी भाषा का उद्भव (Emergence of hindi language)

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का काल 1500 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व है। इस काल में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। संस्कृत भाषा के दो रूप हैं - वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। संस्कृत काल की बोलचाल की भाषा समय के साथ परिवर्तित होकर पाली भाषा के रूप में विकसित हुई। इसका समय 500 ईसा पूर्व से पहली ईस्वी तक है। पाली भाषा का मानक रूप बौद्ध साहित्य में उपलब्ध है। समय के साथ पाली भाषा विकसित होकर प्राकृत भाषा के रूप में सामने आई।आगे चलकर प्राकृत भाषा की विभिन्‍न क्षेत्रीय बोलियाँ शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्द्धमागधी विकसित हुईं, जो आगे चलकर अपभ्रंश भाषा की बोलियाँ के रूप में सामने आईं। अपभ्रंश भाषा का समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा और पुरानी हिन्दी के बीच के समय को संक्रान्ति काल कहा जाता है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने राजा मुंज को पुरानी हिन्दी का प्रथम कवि माना है। अपभ्रंश भाषा को रामचन्द्र शुक्ल ने प्राकृताभास तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी कहा है। अपभ्रंश भाषा की उत्तकालीन अवस्था “अवहट्ठ' के नाम से जानी जाती है। अवहट्ठ भाषा में विद्यापति ने कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना की है। 'दोहा' (दूहा) मूलत: अपभ्रंश भाषा का ही छन्द है। हिन्दी का विकास क्रम है - संस्कृत ⇒ पाली ⇒ प्राकृत ⇒ अपभ्रंश ⇒ अवहट्ठ ⇒ हिन्दी।

हिंदी भाषा की उत्पत्ति का क्रमिक विकास (Sequential development of the origin of Hindi language)

हिन्दी का जन्म संस्कृत की कोख से हुआ है। हिंदी भाषा की उत्पत्ति के विकास क्रम को निर्धारित करने के लिए साढ़े तीन हजार वर्ष से भी अधिक के इतिहास को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है :-
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल (1500 ई.पू. - 500 ई.पू.)
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल (500 ई.पू. - 1000 ई.)
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल (1000 ई. से अब तक)
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल (1500 ई.पू. - 500 ई.पू.) - इस काल को संस्कृत भाषा का काल भी कहा जाता है। इस काल में वेदों के अलावा ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद, वाल्मीकि, व्यास, अश्वघोष, कालिदास और माघ आदि की संस्कृत रचनाएँ भी रची गईं। इस एक हजार वर्ष की अवधि को संस्कृत भाषा के स्वरूप और व्याकरणिक नियमों में अंतर के आधार पर निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है -
वैदिक संस्कृत काल (1500 ईसा पूर्व - 1000 ईसा पूर्व)
लौकिक संस्कृत काल (1000 ईसा पूर्व - 500 ईसा पूर्व)
वैदिक संस्कृत काल (1500 ईसा पूर्व - 1000 ईसा पूर्व) - जिस भाषा में मूल रूप से वेदों की रचना की गई थी, उसे वैदिक संस्कृत कहा जाता है। इसका सबसे पुराना रूप दुनिया के सबसे पहले (अभी तक ज्ञात) ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों की रचना भी वैदिक संस्कृत में ही हुई है, हालांकि उनमें बहुत अंतर है। दुनिया का सबसे पुराना ग्रंथ ऋग्वेद है। यह संभव है कि ऋग्वेद से पहले भी कोई भाषा विद्यमान रही हो, किन्तु उसका कोई लिखित रूप आज तक नहीं मिल पाया है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः सबसे प्राचीन भाषा ऋग्वेद की भाषा वैदिक संस्कृत थी।
लौकिक संस्कृत काल (1000 ईसा पूर्व - 500 ईसा पूर्व) - दार्शनिक ग्रंथों के अलावा साहित्य में भी संस्कृत का प्रयोग किया जाता है। इसे लौकिक संस्कृत कहते हैं। वाल्मीकि, व्यास, अश्वघोष, भाष, कालिदास, माघ की रचनाएँ इसी में हैं। रामायण, महाभारत, नाटक, व्याकरण आदि ग्रंथ लौकिक संस्कृत में ही हैं। वेदों के अध्ययन से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि समय के साथ संस्कृत का स्वरूप बदलता गया। कात्यायन ने संस्कृत भाषा के बिगड़ते स्वरूप को सुधारा और उसका व्याकरणीकरण किया। पाणिनि के नियमन के बाद की संस्कृत वैदिक संस्कृत से काफी भिन्न है जिसे लौकिक या शास्त्रीय संस्कृत कहा जाता है।
संस्कृत काल के अंत तक मानक या परिष्कृत भाषा वही रही, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर तीन क्षेत्रीय बोलियाँ पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय और पूर्वी विकसित हो गईं।
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल (500 ई.पू. - 1000 ई.) - मूलतः इस काल में लोक भाषा का विकास हुआ। वैदिक एवं लौकिक संस्कृत काल में जो बोलचाल की भाषा दबा दी गई थी, अनुकूल समय पाकर उसने सिर उठाया और उसका स्वाभाविक विकास हुआ। इस काल में तीन भाषाएँ विकसित हुईं -
1. पालि भाषा (500 ई. पू. से 1 ई. तक)
2. प्राकृत भाषा (1 ई. से 500 ई. तक)
3. अपभ्रंश भाषा (500 ई. से 1000 ई. तक)
1. पालि भाषा (500 ई. पू. से 1 ई. तक) - संस्कृत काल की बोलचाल की भाषा 500 ई.पू. के बाद विकसित होते या यूँ कहें कि सरल होते-होते बहुत बदल गई, जिसे पालि नाम दिया गया। इसे पुरानी प्राकृत और भारत की पहली मूल भाषा कहा जाता है। यह बौद्ध धर्म की भाषा है। बौद्ध साहित्य पालि भाषा में लिखा गया है। इसकी उत्पत्ति 'मगध' प्रान्त में होने के कारण श्रीलंका के लोग इसे 'मागधी' भी कहते हैं। बोलचाल की भाषा का विनम्र एवं मानक रूप 'पालि भाषा' में मिलता है। समय के साथ इस काल में क्षेत्रीय बोलियों की संख्या तीन से बढ़कर चार हो गई - पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय, पूर्वी और दक्षिणी |
2. प्राकृत भाषा (1 ई. से 500 ई. तक) - पहली शताब्दी ई. तक आते आते बोलचाल की भाषा पालि में और बदलाव आया और इसे प्राकृत कहा जाने लगा। सामान्य मत के अनुसार जो भाषा असंस्कृत थी तथा आम बोलचाल की भाषा थी तथा आसानी से समझी जाने वाली भाषा थी, वह स्वाभाविक रूप से प्राकृत कहलाती थी। प्राकृत भाषा बोलचाल की भाषा होने के कारण पण्डितों में प्रचलित नही थी। संस्कृत नाटकों के अधम पात्र इस बोली का प्रयोग करते थे। जैन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखा गया है। प्राकृत भाषा के पाँच प्रमुख भेद थे :
1.शौरसेनी प्राकृत : यह मथुरा या शूरसेन जनपद में बोली जाती है। इस पर संस्कृत का प्रभाव था।
2.पैशाची प्राकृत : यह उत्तर-पक्षिम में सिन्ध और कश्मीर के आसपास की भाषा थी।
3.महाराष्ट्री प्राकृत : इसका मूल स्थान विदर्भ महाराष्ट्र था।
4.अर्द्धमागधी प्राकृत : यह मागधी और शौरसेनी के बीच के क्षेत्र की भाषा थी। यह कोशल प्रदेश की भाषा थी और इसका का प्रयोग जैन साहित्य में होता था।
5.मागधी प्राकृत : यह मगध के आसपास प्रचलित भाषा थी।
3. अपभ्रंश भाषा (500 ई. से 1000 ई. तक) - भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है। कुछ समय बाद प्राकृत भाषा में भी परिवर्तन हुआ और लिखित प्राकृत भाषा का विकास रुक गया, परंतु कथित प्राकृत भाषा विकसित अर्थात परिवर्तित होती गई। प्राकृत के आचार्यों ने इसी विकासपूर्ण भाषा का उल्लेख अपभ्रंश नाम से किया है। इन आचार्यों के अनुसार 'अपभ्रंश' शब्द का अर्थ बिगड़ी हुई भाषा था। जब भाषा का रूप सुसंस्कृत न रहकर बोलचाल का सामान्य रूप हो जाता है तो पण्डितों की दृष्टि में वह भाषा बिगड़ी हुई मानी जाती है और तब वे उसे अपभ्रंश की संज्ञा देते हैं। अपभ्रंश भाषा का प्रयोग 500 ई. से 1000 ई. तक हुआ। इस भाषा को अवहठ, अवहट्ठ, अवहत्थ, देशभाषा, देशीभाषा आदि अनेक नामों से पुकारा गया। अपभ्रंश भाषा का प्रयोग कालिदास के नाटक ‘विक्रमोर्वशीय’ में निम्न वर्ग के पात्रों द्वारा किया गया है।
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल (1000 ई. से अब तक) - 1000 ई. तक आते-आते मध्य आर्यभाषा काल समाप्त हो गया और आधुनिक भारतीय भाषाओं का युग आरम्भ हुआ। अपभ्रंश के विभिन्‍न क्षेत्रीय स्वरूपों से आधुनिक भारतीय भाषाओं / उप-भाषाओं यथा पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, लंहदा, पंजाबी, सिन्धी, पहाड़ी, मराठी, बिहारी, बांग्ला, उड़िया, असमिया और पूर्वी हिन्दी आदि का जन्म हुआ है। आगे चलकर पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, बिहारी, पूर्वी हिन्दी और पहाड़ी पाँच उपभाषाओं तथा इनसे विकसित कई क्षेत्रिय बोलियों जैसे ब्रजभाषा, खड़ी बोली, जयपुरी, भोजपुरी, अवधी व गढ़वाली आदि को समग्र रूप से हिंदी कहा जाता हैं।
कालांतर में खड़ी बोली अधिक विकसित होकर अपने मानक और परिनिष्ठित रूप में वर्तमान और बहुप्रचलित मानक हिंदी भाषा के रूप में सामने आई |

अपभ्रंश भाषा से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास

अपभ्रंश भाषा के भेद

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा

शौरसेनी अपभ्रंश

पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी

पैशाची अपभ्रंश

लँहदा, पंजाबी

ब्राचड़ अपभ्रंश

सिन्धी

महाराष्ट्री अपभ्रंश

मराठी

मागधी अपभ्रंश

बिहारी, बांग्ला, उड़िया और असमिया

अर्द्धमागधी अपभ्रंश

पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)

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